सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥24॥
शनैः शनैरूपरमेबुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥25॥
संकल्प-दृढ़ संकल्पः प्रभवान्–उत्पन्न; कामान्–कामना; त्यक्त्वा-त्यागकर; सर्वान् समस्त; अशेषत:-पूर्णतया; मनसा-मन से; एव-निश्चय ही; इन्द्रिय-ग्रामम्-इन्द्रियों का समूह; विनियम्य-रोक कर; समन्ततः-सभी ओर से। शनै:-क्रमिक रूप से; उपरमेत्–शान्ति प्राप्त करना; बुद्धया-बुद्धि से; धृति-गृहीतया ग्रंथों के अनुसार दृढ़ संकल्प से प्राप्त करना; आत्म-संस्थम्-भगवान में स्थित; मन:-मन; कृत्वा-करके; न-नहीं; किञ्चित्-अन्य कुछ; अपि-भी; चिन्तयेत् सोचना चाहिए।
BG 6.24-25: संसार के चिन्तन से उठने वाली सभी इच्छाओं का पूर्ण रूप से त्याग कर हमें मन द्वारा इन्द्रियों पर सभी ओर से अंकुश लगाना चाहिए फिर धीरे-धीरे निश्चयात्मक बुद्धि के साथ मन केवल भगवान में स्थिर हो जाएगा और भगवान के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचेगा।
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ध्यान के लिए मन को संसार से हटाने और भगवान में स्थिर करने के लिए दोहरी प्रक्रिया का अनुपालन करना आवश्यक है। यहाँ श्रीकृष्ण इसका वर्णन मन को संसार से हटाने की प्रक्रिया के प्रथम भाग से आरम्भ कर रहे हैं। जब मन संसार में आसक्त हो जाता है तब मन में सांसारिक वस्तुओं, लोगों, घटनाओं के विचार उमड़ते रहते हैं। प्रायः ये विचार आरम्भ में स्फुरणा (भावनाओं और विचारों की झलक) के रूप में होते हैं। जब हम स्फुरणा को कार्यान्वित करने पर बल देते हैं तब यह संकल्प (विचारों का कार्यरूप) बन जाता है। इस प्रकार से विचार संकल्प की ओर ले जाते हैं और विकल्प (विविधता या अनिचित विचार) इस पर निर्भर करता है कि क्या आसक्ति सकारात्मक है या नकारात्मक। खोज और परिवर्तन के बीज इच्छाओं के पौधों का रूप लेकर विकसित होते हैं। यह होना चाहिए था' 'यह नहीं होना चाहिए था' जैसे संकल्प और विकल्प दोनों कैमरे की फिल्म के प्रकाश के संपर्क के समान मन पर तत्काल प्रभाव डालते हैं। इस प्रकार से दोनों भगवान में ध्यान एकाग्र करने में प्रत्यक्ष रूप से बाधा उत्पन्न करते हैं। उनकी स्वाभाविक रूप से भड़कने की प्रवृति होती है और इच्छा जोकि आज बीज के रूप में है वही कल नरक की अग्नि बन सकती है। इसलिए जो ध्यान में सफलता पाना चाहते हैं उन्हें सांसारिक पदार्थों के आकर्षणों का त्याग करना चाहिए। संसार से मन का ध्यान हटाने की प्रक्रिया के प्रथम भाग का वर्णन करने के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण अब दूसरे भाग को व्यक्त कर रहे हैं। मन भगवान पर कैसे स्थिर करें? इस संबंध में वे कहते हैं कि ऐसा स्वतः नहीं होगा लेकिन दृढ़ता से प्रयास करने पर धीरे-धीरे सफलता मिलेगी।
संकल्प की दृढ़ता को शास्त्रों में घृति कहा जाता है। यह संकल्प बुद्धि के दृढ़ निश्चय से आता है। कई लोग धार्मिक शास्त्रों में प्रदत्त आत्मा की प्रकृति और सांसारिक कार्यों की असारता के संबंध में शैक्षणिक जानकारी प्राप्त कर लेते हैं किन्तु उनका दैनिक जीवन उनके इस ज्ञान से भिन्न होता है। उन्हें प्रायः पाप, कामुकता और नशे में संलिप्त देखा जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनकी बुद्धि ऐसे ज्ञान को स्वीकार नहीं करती। विवेक शक्ति संसार की नश्वरता का बोध होने और भगवान के साथ शाश्वत संबंध स्थापित करने के बुद्धि के निश्चय से प्राप्त होती है। इस प्रकार बुद्धि का प्रयोग करते हुए हमें धीरे-धीरे इन्द्रिय सुख के भोगों में संलिप्तता का त्याग करना होगा। इसे 'प्रत्याहार' कहा जाता है अर्थात मन और इन्द्रियों को नियंत्रित कर उन्हें विषयों की ओर आकर्षित होने से रोकना है। प्रत्याहार में शीघ्र सफलता नहीं मिलेगी। इसे धीरे-धीरे बार-बार अभ्यास कर प्राप्त किया जा सकता है। ऐसे अभ्यास में क्या सम्मिलित है? इसकी व्याख्या श्रीकृष्ण अगले श्लोक में करेंगे-